विकास की बात तो हम सभी करते हैं किन्तु विकास का सही अर्थ हम समझने में भुल कर बैठते हैं । बड़ी बड़ी ईमारतें बनना, स्कूल कलेज खुलना, सडक़ पुल लगना ही केवल विकास नहीं है । आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, शैक्षिक, मानसिक पूर्वाधारों में जबतक सकारात्मक उन्नति नहीं होंगे तबतक केवल भौतिक पूर्वाधारों का निर्माण हो जाना ही समग्र सामाजिक विकास नहीं कहला सकती । ईसलिए विकास का सही अर्थ हमें जानना होगा।
नेपाली साम्राज्य में खासकर बैशाख-अषाढ़ भौतिक निर्माण के लिए क्रिटिकल समय रहता है । ८०% बजट ईसी ३ माह में खर्च होती है । मेशिनरी और जटिल वर्क कन्ट्राक्ट में कराने एवं गरीव और आमजन को रोजगरी मिलनेवाला कार्य उपभोक्ता/निर्माण समितिद्वारा कराने की प्रावधान यहाँ रही है । गाँव, नगर, टोल, बस्ती, नुक्कड़ हर जगह आजकल विकास निर्माण एवं उपभोक्ता की चर्चा हो रही है । अधिकांश ग्रामीण वस्तियों में सड़क पर माटी-ग्राभेल का योजना बनाई गई है, जो परंपरागत ही रहा है । ६० लाख तककी निर्माण कार्य उपभोक्ता समितियोंद्वारा कराने की प्रावधान नेपाली कानून में की गई है ।
गाँव-नगर प्रमुखों, जो २० साल बाद नेपाली सत्ता पर विराजमान हुए हैं, उनकी नजरें अभी ईस तरफ तेज होती मालूम पड़ता है । अधिकतर कमजोर, विश्वासपात्र, अनपढ़, गवाँर, आदेशपालक गुणों से सज्जित लोग ही उपभोक्ता समिति के लिए योग्य माने जाते हैं । ऐसे कमजोर लोग रबर स्टांप की काम करने में सक्षम रहती हैं । संभवतः ईसलिए अधिकारियों का चहेता ऐसे ही लोग ही रहते आए हैं ।
निर्माण कार्य में आवश्यक मेशिनरी, मैनपावर और मनी ईन कमजोर समितियों के पास नहीं रहती । बाजार में क्रेडिट भी ईनका नहीं चलता । बडे साहू -महाजन ईनपर विश्वास नहीं रखते । समितियों में वे लोग किसी तरह पदाधिकारी एवं सदस्य बनने में तो कामयाब रहते हैं, किन्तु लाचार और विवश ।
ईस लाचारी और विवशता का लाभ सिण्डिकेटर, माफिया, साहूकार, एजेंट और सरकारी नेता/अधिकारी उठाते हैं । सारे काम यही ईलाईट लोग कराते हैं, और उपभोक्ताओं से सही कराकर कानूनी प्रक्रियाओं का मर्यादा रखते हुए सरकारी निकायों से विकास बजट अपने हाथ लाने में सक्षम रहते हैं । ऐसा नहीं है कि उपभोक्ताएँ शुन्य रहते हैं, उन्हें भी योजना की आकार, प्रकृति और बजट अनुसार भेट दी जाति है । कुछ मेहनत करना ही नहीं पड़ता है, लगानी एवं समय देना ही नहीं पड़ता है लेकिन बैठे बैठे १०/२० हजार की गड्डी मिल गई तो उन्हें और क्या चाहिए?
उधर बड़ेमानों की तालमेल रंग लाती है : नेता, कर्मचारी मालामाल । मेशिनरी प्रयोग का कमिशन अलग, निर्माण सामग्रियों की खरीद में कमीशन अलग । बचत की साझेदारियां बेमिशाल ।
हमारे समाज में हो रहे विकास निर्माण की अधिकांश कहानी यही रही है । कमजोर, लाचार, अचेतन लोगों को आगे दिखाकर चतुर धन बटोरते रहे हैं । ऐसी प्रवृत्तियों से हमें सावधान रहना होगा। श्यामसुन्दर मण्डल फेसबुक सम्भार